लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के दौर में रोजगार की कमी और दुनिया में लेबर सप्लाई का बजता डंका :- इस्लाम हुसैन

 

लेखक:-इस्लाम हुसैन 



रोजगार के सरकारी खोखले  दावों के बीच रोजगार के सुनहरे सुअवसर सापेक्ष रूप से नहीं बढ़ पा रहे हैं। जितने युवा विश्वविद्यालयों और कालेजों से निकल रहे हैं उनके लिए रोजगार ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है। इस तरह बाजार में सप्लाई साइड ज्यादा बड़ी है और डिमांड कम हुई है। इसका असर नौकरी पाने वालों के वेतन और सुविधाओं पर पड़ रहा है। लगभग 10 साल पहले जिन फ़्रैश एमबीए और टैक्नोक्रेट युवाओं को बम्बई बंगलौर और चेन्नई जैसे महानगरों में 30-50 हजार रुपए महीने का पैकेज मिलता था आज भी ज्यों का त्यों या लगभग ही मिल पा रहा है। बड़ी संख्या में एमबीए और टैक्नीकल ग्रेजुएट नौजवान और नवयुवतियां महानगरों और छोटे शहरों में 10 से 20 हजार रुपए महीना से कम में काम करने को मजबूर हैं, दूकानों और छोटी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स में लड़के और लड़कियां  3 से 10 हजार रुपए मासिक वेतन में काम करने को मजबूर हैं। उनके काम के घंटे मालिक की मर्जी पर आधारित हैं।रोजगार के चार मुख्य स्रोत हैं, जिनमें पहला और प्रमुख सरकारी विभाग व संस्थाऐं, दूसरा निजी कम्पनियां, तीसरा विदेशों में नौकरी या कोई धंधा, और चौथा सबसे बड़ा स्वरोजगार कारोबार कुटिर से महाकाय व्यापार है।

लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के दौर में रोजगार की कमी और दुनिया में लेबर सप्लाई का  बजता डंका :- इस्लाम हुसैन





सरकारी नौकरियों का तो हाल है कि कई सालों से केन्द्रीय सरकार के विभागों और संस्थाओं में भर्ती  हुई ही नहीं है। केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों में स्वीकृत लगभग 40 लाख पदों के सापेक्ष 30 लाख से भी कम कर्मियों से काम चलाया जा रहा है, इस तरह 10 लाख  से ज्यादा पद केन्द्र सरकार की संस्थाओं व विभागों में खाली पड़े हैं। इनमें से सबसे ज़्यादा पद रेलवे में खाली हैं, पिछले साल रेलवे में 2.63 लाख से ज़्यादा पद खाली थे। गृह मंत्रालय के तहत आने वाले संगठनों में 1,14,245 पद खाली हैं। इनमें सीआरपीएफ़, बीएसएफ़, और दिल्ली पुलिस शामिल हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं (आईएएस एलाइड) जैसी महत्वपूर्ण कैडर में में करीब 4000 पद खाली हैं. इसका जुगाड़ सरकार ने लैटरल इंट्री में भर्ती करके किया है।राज्य सरकारों के विभागों की स्थिति तो ये है की लाखों पद खाली हैं अकेले यूपी में शिक्षकों के करीब 85 हजार से ज्यादा पद खाली हैं। अभी हाल में ही कुछ राज्य सरकारों ने एक एक लाख पदों की भर्ती की घोषणा की है। यह भर्तियां कब पूरी होंगी,ये भविष्य के गर्भ में है।  क्योंकि बरसों बाद निकलने वाली यह भर्तियां होने वाली परीक्षा में घपले, पेपर लीक, जांच रिपोर्ट हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के दखल और दुबारा टेस्ट और एग्जाम के चक्र से निकल पाएंगी या नहीं? भर्तियों के साथ कुछ भी हो सकता है।


इधर सरकार ने ठेके/ संविदा और अस्थाई नौकरी का जो सस्ता विकल्प निकाला है उससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति पैदा हो गई है। एमएससी और पीएचडी किए हुए अस्थाई टीचर का वेतन एक चौकीदार से भी कम तय किया जा रहा है। रोजगार व नौकरी का सबसे बड़ा क्षेत्र कार्पोरेट और निजी कम्पनियों में नौकरीयां है। यह सैक्टर भी अपेक्षा के अनुसार रोजगार नहीं दे पा रहा है। रोजगार तब पैदा होता है जब नई कम्पनियां और खासकर उत्पादन क्षेत्र की कम्पनियां शुरू होती हैं या उनका विस्तार होता है, नई कम्पनियां देशी पूंजीपति शुरू करें या विदेशी उससे अनेक तरह के रोजगार खुलते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से (अडानी को छोड़कर जिसकी निवेश के सापेक्ष रोजगार देने की दर सबसे कम है) देशी पूंजीपतियों ने बड़ा पूंजी निवेश करके नई कम्पनियों से लोगों को ना रोजगार दिया है और ना ही कोई बड़ी कारपोरेट निगम  उत्पादन के क्षेत्र में आए हैं। 


कुछ साल पहले सऊदी अरब की दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी उर्जा कम्पनी 'अरामको' भी एमओयू करने के बाद अज्ञात कारणों से पलट गई, और सुनते हैं उसने चीन में बड़ा इंवेस्टमेंट कर दिया है।  इस समय भारत के बाज़ारों में विदेशी निवेश 2012 से भी नीचे जा चुका है इस ख़बर को "अज्ञात" कारणों से बहुत कम बिज़नेस चैनल/अख़बारो ने रिपोर्ट किया। जबकि आज विदेशी इन्वेस्टमेंट लगभग 55 लाख करोड़ है जो 2012 से भी लगभग 17% कम है, FDI 23% घट गया, देशी उद्योगपति इन्वेस्टमेंट नहीं कर रहे हैं, व्यक्तिगत निवेश 50 सालों के नीचे लेवल पर है। विदेशी निवेशक लगातार अपनी पूंजी बाजार से निकाल रहे हैं। आए दिन स्टाक एक्सचेंज क्रैश होता रहता है।


दूसरी तरफ कम्पनियां जिस तरह हायर कर रही है वैसे ही फायर (छटनी) कर रही हैं, यह क्षेत्र नौजवानों के लिए असुरक्षित रोजगार का क्षेत्र बनता जा रहा है। मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ नेगेटिव जा रही है। चीन आदि देशों से उन सामानों का आयात बढ़ता जा रहा है जो देश में बन सकते हैं और जिससे रोजगार बढ़ सकता है। लेकिन इस बारे में काम नहीं हो रहा है। मेड इन इंडिया के नारे की हकीकत चीन से होने वाले बढ़ते आयात से आंकी जा सकती है।


नोटबंदी के धक्के के बाद आयात नीति और जीएसटी के नियमों से निजी क्षेत्र में लघु ,अति लघु और मध्यम दर्जे के कारोबार भी नहीं उठ पा रहे हैं। खेती- किसानी और खान-पान पर लगने वाला जीएसटी भोग विलास और शानो-शौकत की वस्तुओं से ज्यादा है। इसका सीधा प्रभाव छोटे कारोबारियों की ग्रोथ और रोजगार पर पड़ रहा है।


सार्वजनिक बैंक सरकार द्वारा एनपीए को माफ करने से क़र्ज़ देने में हिचक रहे हैं ( हाल ही में SBI ने अडानी  के 12,770 करोड़ का कर्ज माफ कर दिया है) प्राइवेट बैंकों पर भी एनपीए को एडजस्ट करने के दबाव ने नए कर्ज़ और कारोबार के रास्ते दुश्वार कर दिए हैं। जिससे छोटे और मझोले स्तर के कारोबार में अपेक्षित नई भर्तियां नहीं  हो पा रही हैं और जो हो रही हैं उससे एक औसत परिवार का घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है। इस बारे जीएसटी के आंकड़े गवाह हैं,  कि 97% जीएसटी 50% गरीबों व  40% मध्यम वर्ग  से वसूला जाता है, देश का अमीर वर्ग जीएसटी में केवल 3% का योगदान करता है, जबकि उसने देश के अधिकांश संसाधनों पर कब्ज़ा किया हुआ है। जिसके कारण पूंजी का प्रवाह रोजगार सृजन की ओर नहीं हो पा रहा है।इस देश के गरीबों की कमाई बीते 15 साल में आधी घट गई। निचले/मध्यम वर्ग की आमदनी 10-30% घट गई और अब वह कर्ज पर आ गया है। हां अपर मिडिल क्लास की कमाई 7% बढ़ी तो उसे 7% महंगाई ने निगल लिया। लेकिन देश के अमीरों की कमाई में 40% का इज़ाफा हुआ है। इस सब का असर बचत और निवेश और रोजगार पर सीधा पड़ रहा है।


पढ़े लिखे (प्रोफैशनल और टैक्नोक्रेट) नौजवानों के लिए उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार न होने से नौजवानों में हताशा है। वो कम वेतन सुविधाओं पर काम करने के लिए मजबूर हैं और क्लीनर चपरासी और डिलिवरी जैसे कामों में हैं कहीं कहीं इन कामों अधिक पढ़ हुए प्रोफैशनल और टैक्नोक्रेट नौजवान भी लगे हुए हैं। ऐसे  नौजवान बेरोजगार विदेश में जाकर कोई भी काम करने के लिए तैयार हैं। विदेश में स्थाई रूप से बसने या रोजगार के जाने की दर पिछले दशक की अपेक्षा ज्यादा हो गई है। 15 लाख से ज़्यादा भारतीय अच्छी ज़िन्दगी के लिए भारतीय नागरिकता छोड़कर विभिन्न देशों मुख्यतया अमेरिका कनाडा यूरोप और मध्य पूर्व के देशों में बस चुके हैं, मुल्क के मौजूदा हालात के मद्देनजर यह सिलसिला लगातार बढ़ता जा रहा है। 


इसकी बानगी अमेरिका में अवैध रूप से घुसने वाले भारतीयों की संख्या है, हर घंटे 10 भारतीय अमेरिका में घुस रहे हैं जिसमें 5 गुजराती हैं। एक साल में यह आंकड़ा 90 हजार को पार कर गया है।पिछले साल गुजरातियों से भरा जो विमान फ्रांस में पकड़कर वापस गुजरात भेजा गया था उसके मुसाफिर भी अमेरिका में घुसने के इरादे से किसी तीसरे दक्षिण अमेरिकी देश के सफ़र में थे। विदेशों में करीब एक करोड़ भारतीय रोजगार कर रहे हैं जिनमें करीब 90 लाख मध्यपूर्व के देशों में हैं, वहां काम करने वाले भारतियों को देश के अक्सर बिगडने वाले साम्प्रदायिक माहौल को लेकर चिंता होती रहती है।अमेरिका और कुछ अन्य मुल्कों के कड़े अप्रवासी नियमों के कारण भारतीय अन्य देशों का रूख कर रहे हैं इसके लिए वो मजदूरी का काम करने को भी राजी हो रहे हैं। इसलिए मुल्क विदेशों में लेबर सप्लाई करने वाला मुल्क बनता जा रहा है, पढ़े लिखे नौजवान रूस सहित योरोपीय देशों में मजदूरी करने जाते थे, अब सूडान जैसे अफ्रीकी देश में और यूक्रेन और इस्राइल जैसे ख़तरनाक हालात के मुल्क में रोजगार में जाने के लिए मजबूर हैं। कुछ महीने पहले ख़ुद सरकार ने बेरोजगार युवकों को इस्राइल में लेबर कामों के लिए भेजा था। यही हालत रहे तो लगता है रिटायरमेंट के बाद अग्निवीर विदेशों में भाड़े के सैनिक बनेंगे, 


वैसे अब वो दिन दूर नहीं कि सोमालिया से लेकर मंगोलिया तक में हमारे मजदूरों का डंका बजेगा। पश्चिमी देशों में मजदूरी के लिए जाने के लिए युवा अब पूर्वी देशों वियतनाम, थाईलैंड जैसे मुल्कों में पर्यटक वीसा लेकर जा रहे हैं और वहां से वापस नहीं आ रहे हैं। पिछले पांच छः सालों में ऐसे 30000 पर्यटक हिन्दुस्तान लौटकर नहीं आए। मुल्क की गोदी मीडिया पिछले सालों में बंगलादेश से अवैध घुसपैठ का प्रचार कर रहा था, बंगलादेश के 5 अगस्त के सत्ता पलट से पता चला कि हमारे हजारों लोगों को बंगलादेश रोजगार दे रहा था और तो और हमारे देश के हजारों छात्र वहां पढ़ाई के लिए गए थे। 2024 में विदेश जाने वाले कुल भारतीय छात्रों की संख्या लगभग 13 लाख है। जिनमें से 4.27 लाख कनाडा और 3.37 लाख छात्र अमेरिका गए हैं। देश में अच्छी शिक्षा पर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है जिससे मौजूदा दौर के लिए पर्याप्त योग्य नौजवान नहीं मिल रहे हैं, यह भी रोजगार संकट की एक बड़ी वजह है। इसीलिए बड़े और नामवर शिक्षा संस्थानों का प्लेसमेंट घट रहा है, आईआईटी बॉम्बे में ऑन कैंपस प्लेसमेंट में 30% छात्रों के बेरोज़गार रहने की खबर आई थी। सभी आईआईटी का यही हाल है। कंपनियाँ 4 -10 लाख सालाना माने 30- 80 हज़ार महीने पर भर्ती कर रही है तो छात्र मजबूर हैं!  हाल ये है कि फिर भी बहुत से छात्र प्लेसमेंट में सलेक्ट नहीं हो पा रहे हैं। 


नए रोजगार लायक इंवेस्टमेंट नहीं आ रहा है, जो है वो दूसरी  ओर शेयर बाजार की अनिश्चितता से विदेशी निवेश खिसकता जा रहा है। जिससे छोटे, मझोले और लघु निवेशक तबाह हो रहे हैं। जिसका प्रभाव  घूम-फिरकर रोजगार और विकास पर पड़ रहा है। इस समय असंगठित क्षेत्र के 45 करोड़ से अधिक लोगों के सामने रोज़गार का संकट है तो संगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के सामने ये उलझन पैदा हो गई कि वो बिना पूंजी कैसे आगे बढ़े? और इस प्रकिया में रियल एस्टेट से लेकर हर क्षेत्र सिकुड़ रहा है।रोजगार और अर्थव्यवस्था से सम्बंधित कुछ तथ्य अधिक विचारणीय हैं 2024 के वैश्विक प्रकृति संरक्षण (दूसरे शब्दों में प्राकृतिक संसाधन, जिसके आधार पर किसी देश की स्थाई और सतत् प्रगति होती है) सूचकांक में भारत 180 देशों में 176वें नंबर पर रहा है। 

आर्थिक स्वतंत्रता रिपोर्ट 2024 में भारत 84वें स्थान पर है.

इस साल देश का निर्यात बढ़ते बैंक ब्याज और अन्य नीतिगत कारणों से 40 प्रतिशत तक घट सकता है, इससे कितने ही रोजगार के अवसर प्रभावित होंगे ? निम्न और मध्यम वर्ग की खरीद शक्ति कम होने से किराना व्यापारी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं तो कार और अन्य वाहनों की बिक्री घटी है, लाखों करोड़ों का स्टॉक शोरूम में अटका पड़ा है। उधर देश का इलीट वर्ग इस सबसे बेखबर मौज में है, अमीरों की अमीरी और संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है। 




(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)




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